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गुरुवार, 9 अगस्त 2012

गजल

हमर ठोढ़क चौकैठ पर आबि किए नुकाबए छी
बनि क हमर ठोढ़क मुस्की जानि बूझि सताबए छी

निःशब्द राति में चिहुंकि जगलौं आहट सुनि अहाँके

कहू त अहाँ कतेक निर्दय सूतल सँ जगाबए छी

हम अहाँ बिनु कोना जीयब इहो नै बूझल अखन

क रहल छी प्रयास जे मुश्किल किएक बनाबए छी


कहने छलौ अहाँक करेजक घर में रहै छी हम
सभ के केवार करेजक खोलि किएक देखाबए छी

एतबो बकलेल जुनि बूझू हमरा अहाँ यौ प्रीतम

"रूबी" सबटा बुझै छैक जानि बूझि क खिसयाबए छी
आखर --२०
{रूबी झा }

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