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रविवार, 4 मार्च 2012

गजल ३४

हिनका पेट ढुकैत कियै नै किछु आगि आकि पानि छै
बाभन-सोल्हकन द्वेष किछु सरिपहुँ किछु ठानि छै

मुँह देखि मुंगुआ परसैक छै पुरनके व्यवहार
कतहुँ भाय-भतार, कतहुँ सेज पर देल बाणि छै

अपहरण-बालात्कार सँ तँ छहियै सभ डेराओल
बलत्कारी थोरै बुझै मौगी-देह बाभनि कि मियानि छै

बुड़िबक जकाँ कियै मारै छियै एहि अबला बूढ़ी केँ
मोन अस्सक अहाँक, कहै छी हिनका हक्कल-डानि छै

खढ़ खौटि आगि सेदै मे लागि रहल छैन्हि रसगर
अगिलुत्तिक झड़कल घा केर एक्कोरत्ती नै ग्लानि छै

राज करै फ़ोड़ूक नीति छै उपनिवेशक जनमल
अपन देस लोकतंत्रो केँ ठेघने इयह धरानि छै

"शांतिलक्ष्मी"क विस्वास तँ ऊँच-ओछ सँ छै बड़ ऊपर
हमर लिंग-जाति सँ अपनेक मोन कियै बिषानि छै

......वर्ण २०........

रचना:-
शंतिलाक्ष्मी चौधरी


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