Ads by: Mithila Vaani

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

गजल


टुकडी-टुकडी मे जिनगी बीताबैत रहलौं।
सुनलक नै कियो जे बेथा सुनाबैत रहलौं।

अपन आ आनक भेद इ दुनिया बुझौलक,
इ भेद सदिखन मोन केँ बुझाबैत रहलौं।

ऐ मोन मे पजरल आगि धधकैत रहल,
हम पेट मे लागल आगि मिझाबैत रहलौं।

अपन अटारी सभ सँ सुन्नर बनाबै लेल,
कोन-कोन नै जोगाड हम लगाबैत रहलौं।

दुनियाक खेला मे "ओम" बन' चाहल मदारी,
बनि गेलौं जमूरा सभ केँ रीझाबैत रहलौं।
-------------- वर्ण १७ ---------------

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

  © Mithila Vaani. All rights reserved. Blog Design By: Chandan jha "Radhe" Jitmohan Jha (Jitu)

Back to TOP