गजल
भेंटलै जखने नबका मीत पुरना केँ कोना छोडि देलक।
जकरा सँ छल ठेहुँन-छाबा, हमर मोन के तोडि देलक।
सपथक नै कोनो मालगुजारी, सपथक नै बही बनल,
संग जीबै-मरैक सपथ खा केँ जीबतै डाबा फोडि देलक।
ओकरा लग छै ढेरी चेहरा, हमरा लग बस एके छल,
अपन भोरका मुँह पर नब मुँह साँझ मे जोडि देलक।
जिनगी-खेत मे विश्वास-खाद द' प्रेमक बीया हम बुनल,
धोखा केर कोदारि चला केँ देखू लागल खेती कोडि देलक।
"ओम" प्रेमक घर बनेलक, ओकरा बिन छै सून पडल,
बाट जे जाइ छल ओहि घर मे, कोनो जोगारे मोडि देलक।
---------------------- वर्ण २२ --------------------
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें